बदलाव की मिसाल हैं थारू महिलाएं पत्तों से संवर रही है महिलाओं की जिंदगी

थर्माकोल और प्लास्टिक के कप-प्लेटों पर प्रतिबंध लगने के बाद बाजार में पत्तों के बने दोने- पत्तलों की मांग बढ़ी तो थारू जाति की महिलाओं ने इसे अवसर के रूप में लिया और अपनी आजीविका का साधन बना लिया। जो प्रकृति से जुड़े रहते हैं प्रकृति भी उन्हें कभी नहीं छोड़ती। थारू जनजाति कुदरत के साथ ताल मिलाते हुए सदियों से अपना अस्तित्व कायम रखे हुए है। पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर इस जनजाति के आय के साधन-संसाधन भी प्राकृतिक ही रहे हैं। विकास के अंधड़ ने धीरे-धीरे इनके आय के स्त्रोत समेट दिए और एकएक कर रोजगार इनके हाथ से निकलते चले गए। इस निराशाजनक स्थिति में एक बार फिर प्रकृति ही इनके रक्षक के रूप में सामने आई। ___ महुराइन प्रजाति के पत्तों से बने दोना-पत्तल की मांग बढ़ी तो पचपेड़वा क्षेत्र के जंगलवर्ती गांव फोगही की थारू महिलाओं ने इसमें अपने लिए रोजगार तलाश लिया। जंगल से पत्ते तोड़कर उसे हाथों से मनचाहा आकार देती हैं। इस काम पुरुष भी उनका हाथ बंटाते हैं। उनके द्वारा तैयार किए गए दोनों-पत्तलों की बनावट व हरापन बाजार में बिकने वाले रेडीमेड दोना- पत्तल को मात दे रहे हैं। आसपास के बाजारों थारू पत्तल की मांग अधिक है। इससे महिलाओं की अच्छी आमदनी भी होती है। भारत-नेपाल की सीमा पर बसे फोगही गांव में 105 थारू परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैंपेड़ के पत्ते से दोना पत्तल बनाने का इनका पुश्तैनी धंधा थर्माकोल के बढ़ते चलन से विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गया था। अब इस पर प्रतिबंध होने के बाद थारू महिलाओं ने एक बार फिर एकजुट होकर यह धंधा शुरू कर दिया है। इसके लिए दस किलोमीटर जंगल के दुर्गम रास्तों से होकर पहाड़ पर जाती हैं। जहां महुराइन प्रजाति के पेड़ के पत्ते तोड़कर उनसे दोना, पत्तल, टेपरा, टिवरी, छतरी, बिस्तुर व खोली तैयार करती हैं। महराइन के पत्ते लतादार होने से उन्हें मनचाहा आकार दिया जाता है। साथ ही पेड़ की छाल से रस्सी बनाई जाती है, जो काफी मजबत होती है। फोगही निवासी राकेश थारू के घर में सूरसती देवी, बरसाती देवी, सुघमानी, पुष्पा देवी, सुनरमती, जनकदुलारी समेत कई महिलाएं समूह में दोना-पत्तल बनाने का काम करती हैं।