नवंबर 2019 में मुंबई और मई 1996 में दिल्ली के मौसम की तासीर और वक्त का भले ही फासला हो, लेकिन दोनों में कुछ समानताएं जरूर हैं। तब लोकसभा में 162 सीटें जीतकर सबसे बड़ा दल बनकर उभरी भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार महज 13 दिन ही चल पाई। सबसे बड़ा दल विपक्ष में बैठने को मजबूर हुआ, और एक-एक सांसद वाले दल भी सरकार में शामिल होने में कामयाब रहे। ठीक उसी तरह मुंबई में महाराष्ट्र विधानसभा की 105 सीटें जीत चुकी सबसे बड़े दल के नेता देवेंद्र फड़नवीस की सरकार महज 80 घंटे तक ही रह सकी। अब देवेंद्र फड़नवीस को अपने शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नेता विपक्ष की भूमिका निभानी है। ऐसे में एक सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या महज डेढ़ साल के अंतराल पर हुए चुनावों के बाद जिस तरह केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी अगुआई में भारतीय जनता पार्टी उभरी और उसके बाद साढे पांच वर्ष सरकार चलाने में सफल रही, क्या महाराष्ट्र में वैसा ही इतिहास दोहराया जाने वाला है? चूंकि राजनीति की दुनिया गणित की तरह सटीक नहीं होती, लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य और राजनीतिक हालात बता रहे हैं कि शिवसेना के सामने आत्मसमर्पण ना करके भाजपा ने बड़ा संदेश दिया है। उसने साफ कर दिया है कि वह अपने सहयोगी दलों का साथ तो चाहेगी, लेकिन उनकी उल-जलूल मांगों के सामने नहीं झुकेगी। महाराष्ट्र के संदेश बिहार, पंजाब और दूसरे राज्यों में उसके सहयोगी दल स्पष्टता से सुन चुके होंगे। इसके बाद उनका आशंकित होना और नए मिजाज के मुताबिक रणनीति बनाना स्वाभाविक है। तो क्या यह मान लिया जाए कि भाजपा अपने गठबंधन में अब दबंग बड़े भाई की भूमिका निभाने को कमर कस चुकी है? महाराष्ट्र के हालात तो कम से कम यही संकेत देते हैं। भाजपा और शिवसेना के सूत्रों से कुछ खबरें आई हैं कि भाजपा की करीब तीन दशक पुरानी और सबसे विश्वस्त सहयोगी मानी जाती रही शिवसेना ढाई-ढाई वर्ष के मुख्यमंत्री की अपनी मांग से तब पीछे हटती जा रही थी, जब इस मसले को सुलझाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इशारे पर केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी आगे आए थे। तब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने आपसी बातचीत में स्वीकार कर लिया था कि अगर भाजपा गडकरी को मुख्यमंत्री बनाती है तो वे ढाई वर्ष के लिए शिवसेना के मुख्यमंत्री की मांग को वापस ले सकते हैं। सूत्रों के हवाले से आई खबरों के मुताबिक उद्धव ठाकरे इस बात पर भी तैयार थे कि गडकरी की अगुआई में बनने वाली सरकार में आदित्य ठाकरे को उप- मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा तो वे नए हालात को स्वीकार कर लेंगे। लेकिन सूत्रों के हवाले से आई खबरों के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिवसेना की इस बदली मांग को ठुकरा दिया। दरअसल प्रधानमंत्री खुद महाराष्ट्र की चुनावी सभाओं में दिल्ली में नरेंद्र और मुंबई में देवेंद्र का नारा दे आए थे। प्रधानमंत्री का मानना था कि अगर गडकरी को मुख्यमंत्री स्वीकार किया गया तो शिवसेना इसे अपनी जीत के तौर पर प्रचारित करेगी और इसके संकेत ठीक नही जाएंगे। इसलिए भाजपा ने महाराष्ट्र की सरकार को कुर्बान करना ज्यादा उचित समझा। ढाई-ढाई वर्ष के सत्ता के बंटवारे की शिवसेना की मांग को अगर भाजपा स्वीकार कर लेती तो यह भारतीय राजनीति में एक और गलत परंपरा बनती। करीब दोगुनी ज्यादा सीटें जीतने वाला दल सत्ता में सहयोगी की भूमिका में रहे और छोटा दल सत्ता की अगुआई करे, यह उस जनता का अपमान होता, जिसने सबसे बड़े दल को चुना है। वैसे भी महाराष्ट्र में जो सरकार बनी है, उसे चाहे जितना भी संविधान की रक्षा के तौर पर प्रचारित किया जाए, यह राज्य की जनता के बड़े हिस्सों के मतों का अपमान ही है, क्योंकि जनता ने चुनाव पूर्व गठबंधन को जीत दी थी। भाजपा को बड़ी जीत देने का संकेत यही था कि राज्य की जनता के लिए नई सरकार के संदर्भ में वही उसकी पसंदीदा पार्टी रही। इन संदर्भो में देखें तो शिवसेना की अगुआई में गठित सरकार को राज्य के मतदाताओं का बड़ा हिस्सा शायद ही स्वीकार करे। यहीं पर एक बार फिर वर्ष 1996 की घटनाएं याद आती हैं। भाजपा को सत्ता से अलग-थलग रखने को देश ने स्वीकार नहीं किया और भारतीय मतदाओं ने अगले चुनाव में और आक्रामक ढंग से उसे समर्थन दिया। अगर दो आम चुनावों से भाजपा केंद्र की सत्ता में अपने दम के बहुमत से काबिज है और जनता का उसे व्यापक समर्थन मिला है तो उसकी एक बड़ी वजह यही है कि राजनीति की दुनिया में सारे दलों का उसे अलग-थलग रखने की रणनीति आम लोगों को पसंद नहीं आई। इसके बाद प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीय मतदाता और आक्रामक ढंग से भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में गोलबंद हुआ। छोटे दलों के साथ बड़े दलों की सरकार चलाने का अनुभव भाजपा का भी रहा है और निश्चित तौर पर वह अनुभव खराब ही रहा है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह से अलगाव के बाद 63 विधायकों वाली बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को 176 विधायकों वाली भाजपा ने सहयोग दिया और तब भी तय हुआ था कि आधे-आधे वक्त के लिए दोनों के मुख्यमंत्री होंगे। मायावती ने अपनी मियाद तो पूरी कर ली और बड़े दल वाली भारतीय जनता पार्टी ने उनका धैर्यपूर्वक साथ दिया। लेकिन जब वायदे के मुताबिक भाजपा के नेता कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो मायावती मुकर गईं, और गठबंधन टूट गया। इसी तरह बीते दिनों कर्नाटक में हुआ था, जब जनता दल सेक्युलर जैसी छोटी पार्टी के नेता एचडी कुमारस्वामी को बड़े दल भाजपा ने समर्थन दिया और जब भाजपा की सरकार बनाने की बारी आई तो कुमारस्वामी की पार्टी मुकर गई। इसके बाद कर्नाटक में चनाव हए और भारतीय जनता पार्टी को भारी बहमत मिला। कुछ समीक्षक मानते हैं कि महाराष्ट्र में भी ऐसा ही होने की संभावना ज्यादा है। दरअसल महाराष्ट्र सरकार में शामिल होने वाले मंत्रियों का इतिहास देखें तो बहुत कुछ सामने आता है। दिल्ली के महाराष्ट्र सदन घोटाला में जेल की यात्रा कर चुके छगन भुजबल पहले शिवसेना के नेता रहे और बाद में विद्रोह करके राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए। उन्हें शिवसेना का आम कैडर स्वीकार नहीं कर पाता था। एक दौर में उनके खिलाफ शिवसेना ने जगह-जगह आक्रामक प्रदर्शन किए थे। उनकी छवि भी साफ नहीं है। अजीत पवार बेशक अभी सरकार में शामिल नहीं हैं, लेकिन माना जा रहा है कि 70 हजार करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले के आरोपी अजीत पवार राज्य के उप-मुख्यमंत्री हो सकते हैं। इन पुराने और घाघ राजनेताओं पर उद्धव ठाकरे कैसे काबू कर पाएंगे, इसे देखना दिलचस्प होगा। वैसे शिवसेना के सामने एक और बडी चनौती सामने आने वाली है। उसके कैडर का विकास उग्र हिंदत्व के साथ आक्रामक शैली की स्थानीय राजनीति करते हुआ है। अपने गठन से लेकर अब तक कुछ मौकों को छोड़कर उसका कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के कैडरों से आक्रामक विरोध का रिश्ता रहा है। लेकिन बदले हालात में उन्हें साथ बैठने में हिचक होगी। कुछ वैसी ही हालत महाराष्ट्र के शिवसैनिकों और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच होने जा रही है, जैसी एक-दूसरे के व्यापक प्रतिस्पर्धी रहे उत्तर प्रदेश के समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के कैडरों के बीच रही। कांग्रेस के साथ से अगर शिवसेना को लंबी पारी खेलनी है तो उसे उग्र हिंदुत्व की राह को छोड़ना पड़ेगा या उसे थोड़ा नरम बनाना पड़ेगा। पार्टी तो बन भी सकती है, लेकिन तीन दशक से स्थानीय स्तर पर तेवर की राजनीति की रवायत में प्रशिक्षित उसके कार्यकर्ताओं के लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं होगा। यही शिवसेना की बड़ी चुनौती होगी। इसी आधार पर सरकार की स्थिरता पर सवाल उठेंगे। वैसे कुछ महीने बाद राज्य में स्थानीय निकायों के चुनाव होने हैं। अब तक शिवसेना भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ती रही है। लेकिन बदले हालात में उसे कई जगह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के लिए त्याग करना पड़ेगा।
आसान नहीं शिवसेना के लिए आगे की राह